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न्याय की प्रतीक्षा में भारत देश,अदालतों की देरी गहराती अदालत व्यवस्था का संकट : रोहित पांडेय

By चंदन शर्मा नई दिल्ली : देश में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या और न्यायिक ढांचे की कमजोरियों को लेकर चिंता लगातार बढ़ रही है। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व सचिव एवं विचारक रोहित पांडे ने अदालतों में बढ़ते बैकलॉग, सीमित संसाधनों और न्यायिक सुधारों की तत्काल आवश्यकता पर गहरी चिंता जताई है। उनके अनुसार, भारत की न्यायिक प्रणाली वर्षों से ऐसे दबाव में काम कर रही है, जो इसे धीरे-धीरे एक गंभीर संकट की ओर धकेल रहा है।

न्याय की प्रतीक्षा में भारत देश,अदालतों की देरी गहराती अदालत व्यवस्था का संकट : रोहित पांडेय

भारत में न्यायिक देरी की सबसे बड़ी वजह न्यायाधीशों की बेहद कम संख्या और कमजोर बुनियादी ढांचा है। विधि आयोग की 120वीं रिपोर्ट (1987) ने भारत के जज-जनसंख्या अनुपात की तुलना विकसित देशों से करते हुए चेतावनी दी थी कि भारत में प्रति दस लाख आबादी पर मात्र 10.5 जज हैं, जबकि अमेरिका में यह संख्या 107, कनाडा में 75.2, ऑस्ट्रेलिया में 41.6 और ब्रिटेन में 50.9 प्रति मिलियन है। 1981 में अमेरिका की जनसंख्या भारत की तुलना में एक-तिहाई थी, फिर भी वहां 25,037 जज थे, जबकि भारत में कुल 7,675 जज ही कार्यरत थे।

केंद्र सरकार विधि आयोग की उस सिफारिश को भी पूरा नहीं कर सकी, जिसमें वर्ष 2000 तक जजों की संख्या बढ़ाकर 107 प्रति मिलियन करने की सलाह दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने भी “ऑल इंडिया जजेस एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया” (2003) में जजों की संख्या हर वर्ष दस प्रति मिलियन बढ़ाने और न्यूनतम अनुपात 50 जज प्रति मिलियन करने का निर्देश दिया, लेकिन यह भी लागू नहीं हो सका।

अदालतों को अधिक जज, अधिक कोर्टरूम और आधुनिक बुनियादी ढांचे की सख्त जरूरत है, लेकिन बजट आवंटन इससे बिल्कुल उलट है। दसवीं पंचवर्षीय योजना में न्यायपालिका को कुल बजट का मात्र 0.078 प्रतिशत और नौवीं योजना में 0.071 प्रतिशत ही दिया गया, जो बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए भी पर्याप्त नहीं था।

रोहित पांडे का मानना है कि पारंपरिक अदालतों पर बोझ कम करने के लिए वैकल्पिक विवाद निपटान प्रणाली (ए डी आर) को मजबूत करना होगा। मध्यस्थता, सुलह, पंचाट और “मेडुला” जैसे तरीकों को कानूनी मान्यता मिलने के बावजूद ये अभी भी कम उपयोग में हैं। सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 89 में संशोधन कर ए डी आर को न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा तो बनाया गया, लेकिन सरकार और सामाजिक संगठनों के समन्वय के बिना इसका प्रभाव सीमित रह गया।

फिजूल मुकदमों को रोकने के लिए अदालतों को कड़े दंडात्मक खर्च लगाने चाहिए। ब्रिटिशकालीन “वेग्ज़ेशस लिटिगेशन प्रिवेंशन एक्ट” जैसी केंद्रीय कानून व्यवस्था की आवश्यकता महसूस की जा रही है। छोटे अपराधों के लिए ग्राम स्तर पर न्यायिक निकायों को मजबूत किए जाने की सिफारिश भी महत्वपूर्ण है।

ग्राम न्यायालयों, ग्राम परिषदों और निचली अदालतों में प्रक्रियागत लापरवाही को समाप्त करना होगा। गवाहों के बयान में देरी, 30 दिनों में फैसला लिखने के नियम का पालन न होना और अनावश्यक लंबी दलीलें न्याय में देरी की प्रमुख वजहें हैं। अपील की व्यवस्था में सुधार कर “वन अपील पॉलिसी” अपनाने की जरूरत है, ताकि मुकदमों की संख्या कम हो सके।

अमेरिका के “स्पीडी ट्रायल एक्ट-1974” की तर्ज पर मुकदमों की समय सीमा तय करने वाला कानून भारत में भी लागू होना चाहिए। गुजरात में सफल साबित हुए “शिफ्ट सिस्टम” को पूरे देश की अदालतों में लागू करने की सिफारिश भी की गई है।

ग्यारहवीं वित्त आयोग की सिफारिश पर बनाए गए 1,734 फास्ट ट्रैक कोर्ट्स ने काफी मामलों का निपटारा किया। अब ऐसी व्यवस्था को मजिस्ट्रेट स्तर तक बढ़ाया जाना चाहिए। मोबाइल कोर्ट भी ग्रामीण इलाकों में कानूनी जागरूकता बढ़ाने और जनविश्वास मजबूत करने में अहम भूमिका निभा सकती हैं।

अधिकतर विधि जानकारों का मानना है कि यदि जल्द और निर्णायक सुधार नहीं हुए, तो भारत की न्यायिक व्यवस्था एक ऐसे मोड़ पर पहुँच सकती है जहाँ से वापसी मुश्किल होगी। यह समय है जब सरकार को न्याय प्रणाली को सुदृढ़ करने और लंबित मामलों के बोझ को कम करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे।

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